
'पुराण' शब्द में 'इक' प्रत्यय लगाने से कौन-सा शब्द बनेगा?
पोराणिक
पुराणीक
पौराणिक
पुराणिक

Important Questions on भाषा

निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्न का उत्तर दीजिए।
मेरे मकान के आगे चौराहे पर ढाबे के आगे फुटपाथ पर खाना खाने वाले लोग बैठते हैं-रिक्शेवाले, मजदूर, फेरीवाले और कबाड़ी वाले...। आना-जाना लगा ही रहता है। लोग कहते हैं “आपको बुरा नहीं लगता? लोग सड़क पर गन्दी फैला रहे हैं। और आप इन्हें बरदाश्त कर रहे हैं? इनके कारण पूरे मोहल्ले की आबोहवा खराब हो रही है।"
मैं उनकी बातों को हल्के में ही लेता हूँ। मुझे पता है कि यहाँ जो लोग जुटते हैं, वे गरीब लोग होते हैं। अपने काम-धाम के बीच रोटी खाने चले आते हैं और खाकर चले जाते हैं। ये आमतौर पर बिहार से आए गरीब एवं ईमानदार लोग हैं, जो हमारे इस परिसर के स्थायी सदस्य हो गए हैं। ये उन अशिष्ट अमीरों से भिन्न हैं, जो साधारण सी बात पर भी हंगामा खड़ा कर देते हैं। लोगों के पास पैसा तो आ गया, पर घनी होने का शऊर नहीं आया। 'अधजल गगरी छलकत जाए' की तर्ज पर इनमें दिखावे की भावना उबाल खाती है।
असल में यह ढाबा हमें भी अपने माहौल से जोड़ता है। मैं लेखक हूँ तो क्या हुआ? गाँव के एक सामान्य घर से आया हुआ व्यक्ति हूँ। बचपन में गाँव-घरों की गरीबी देखी है और भोगी भी है। खेतों की मिट्टी में रमा हूँ, वह मुझमें रमी है। आज भी उस मिट्टी को झाडझूड़ कर भले ही शहरी बनने की कोशिश करता हूँ, बन नहीं पाता। वह मिट्टी बाहर से चाहे न दिखाई दे, अपनी महक और रसमयता से वह मेरे भीतर बसी हुई है, इसीलिए मुझे मिट्टी से जुड़े ये तमाम लोग भाते हैं। इस दुनिया में कहा-सुनी होती है, हाथापाई भी हो जाती है, लेकिन कोई किसी के प्रति गाँठ नहीं बाँधता। दूसरे-तीसरे ही दिन परस्पर हँसते बतियाते और एक-दूसरे के दुःख दर्द में शामिल होते दिखाई पड़ते हैं। ये सभी कभी न कभी एक दूसरे से लड़ चुके हैं, लेकिन कभी इसकी प्रतीति नहीं होती कि ये लड़ चुके है। कल के गुस्से को अगले दिन धूल की तरह झाड़कर फेंक देते हैं।
‘अधजल गगरी छलकत जाए’ किसके संदर्भ में कहा गया है?


निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्न का उत्तर दीजिए।
शिक्षा आज दुविधा के अजब दोराहे पर खड़ी है। एक रास्ता चकाचौध का है, मृगतृष्णा का है। बाजार की मृगतृष्णा शिक्षार्थी को लोभ-लालच देकर अपनी तरफ दौड़ाते रहने को विवश करने को उतारू खड़ी है। बाजार के इन ललचाने वाले रास्तों पर आकर्षण है, चकाचौध है और सम्मोहित कर देने वाले सपने है। दूसरी तरफ शिक्षा का साधना मार्ग है, जो शान्ति दे सकता है, सन्तोष दे सकता है और हमारे आत्मतत्व को पचल करता हुआ विवेक दे सकता है। निश्चित हो वह मार्ग श्रेयस्कर है, मगर अपनी ओर आकर्षित करने वाले बाजार का मार्ग प्रेयस्कर है।इस दोराहे पर खड़ा शिक्षार्थी बाजार को चुन लेता है। लाखों-करोड़ों लोग आज इसी रास्ते के लालच में आ गए हैं। और शिक्षा के भँवरजाल में फँस गए हैं। बाजार की खूबी यही है कि वह फँसने का अहसास किसी को नहीं होने देता और मनुष्य लगातार फँसता चला जाता है। किसी को यह महसूस नहीं होता कि वह दलदल में है, बल्कि महसूस यह होता है कि बाजार द्वारा दिए गए पैकेज के कारण वह सुखी है। अब यह अलग बात है कि सच्चा सुख क्या है? और सुख का भ्रम क्या है ? जरूरत विचार करने की है। सवाल यह है कि बाजार विचार करने का भी अवकाश देता है या कि नहीं।
"दूसरी तरफ शिक्षा का साधना मार्ग है“- तो पहली तरफ क्या है?

निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्न का उत्तर दीजिए।
शिक्षा आज दुविधा के अजब दोराहे पर खड़ी है। एक रास्ता चकाचौध का है, मृगतृष्णा का है। बाजार की मृगतृष्णा शिक्षार्थी को लोभ-लालच देकर अपनी तरफ दौड़ाते रहने को विवश करने को उतारू खड़ी है। बाजार के इन ललचाने वाले रास्तों पर आकर्षण है, चकाचौध है और सम्मोहित कर देने वाले सपने है। दूसरी तरफ शिक्षा का साधना मार्ग है, जो शान्ति दे सकता है, सन्तोष दे सकता है और हमारे आत्मतत्व को पचल करता हुआ विवेक दे सकता है। निश्चित हो वह मार्ग श्रेयस्कर है, मगर अपनी ओर आकर्षित करने वाले बाजार का मार्ग प्रेयस्कर है।इस दोराहे पर खड़ा शिक्षार्थी बाजार को चुन लेता है। लाखों-करोड़ों लोग आज इसी रास्ते के लालच में आ गए हैं। और शिक्षा के भँवरजाल में फँस गए हैं। बाजार की खूबी यही है कि वह फँसने का अहसास किसी को नहीं होने देता और मनुष्य लगातार फँसता चला जाता है। किसी को यह महसूस नहीं होता कि वह दलदल में है, बल्कि महसूस यह होता है कि बाजार द्वारा दिए गए पैकेज के कारण वह सुखी है। अब यह अलग बात है कि सच्चा सुख क्या है? और सुख का भ्रम क्या है ? जरूरत विचार करने की है। सवाल यह है कि बाजार विचार करने का भी अवकाश देता है या कि नहीं।
निम्न में से कौन-सी विशेषता बाजार की नहीं है?




निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्न का उत्तर दीजिए।
मेरे मकान के आगे चौराहे पर ढाबे के आगे फुटपाथ पर खाना खाने वाले लोग बैठते हैं-रिक्शेवाले, मजदूर, फेरीवाले और कबाड़ी वाले...। आना-जाना लगा ही रहता है। लोग कहते हैं “आपको बुरा नहीं लगता? लोग सड़क पर गन्दी फैला रहे हैं। और आप इन्हें बरदाश्त कर रहे हैं? इनके कारण पूरे मोहल्ले की आबोहवा खराब हो रही है।"
मैं उनकी बातों को हल्के में ही लेता हूँ। मुझे पता है कि यहाँ जो लोग जुटते हैं, वे गरीब लोग होते हैं। अपने काम-धाम के बीच रोटी खाने चले आते हैं और खाकर चले जाते हैं। ये आमतौर पर बिहार से आए गरीब एवं ईमानदार लोग हैं, जो हमारे इस परिसर के स्थायी सदस्य हो गए हैं। ये उन अशिष्ट अमीरों से भिन्न हैं, जो साधारण सी बात पर भी हंगामा खड़ा कर देते हैं। लोगों के पास पैसा तो आ गया, पर घनी होने का शऊर नहीं आया। 'अधजल गगरी छलकत जाए' की तर्ज पर इनमें दिखावे की भावना उबाल खाती है।
असल में यह ढाबा हमें भी अपने माहौल से जोड़ता है। मैं लेखक हूँ तो क्या हुआ? गाँव के एक सामान्य घर से आया हुआ व्यक्ति हूँ। बचपन में गाँव-घरों की गरीबी देखी है और भोगी भी है। खेतों की मिट्टी में रमा हूँ, वह मुझमें रमी है। आज भी उस मिट्टी को झाडझूड़ कर भले ही शहरी बनने की कोशिश करता हूँ, बन नहीं पाता। वह मिट्टी बाहर से चाहे न दिखाई दे, अपनी महक और रसमयता से वह मेरे भीतर बसी हुई है, इसीलिए मुझे मिट्टी से जुड़े ये तमाम लोग भाते हैं। इस दुनिया में कहा-सुनी होती है, हाथापाई भी हो जाती है, लेकिन कोई किसी के प्रति गाँठ नहीं बाँधता। दूसरे-तीसरे ही दिन परस्पर हँसते बतियाते और एक-दूसरे के दुःख दर्द में शामिल होते दिखाई पड़ते हैं। ये सभी कभी न कभी एक दूसरे से लड़ चुके हैं, लेकिन कभी इसकी प्रतीति नहीं होती कि ये लड़ चुके है। कल के गुस्से को अगले दिन धूल की तरह झाड़कर फेंक देते हैं।
साधारण बात पर भी हंगामा कौन खड़ा कर देते हैं?

नीचे दिए गए प्रश्न में रिक्त स्थान की पूर्ति कीजिए।
जिसकी तुलना न हो सके, उसे _____ कहते हैं।

निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्न का उत्तर दीजिए।
शिक्षा आज दुविधा के अजब दोराहे पर खड़ी है। एक रास्ता चकाचौध का है, मृगतृष्णा का है। बाजार की मृगतृष्णा शिक्षार्थी को लोभ-लालच देकर अपनी तरफ दौड़ाते रहने को विवश करने को उतारू खड़ी है। बाजार के इन ललचाने वाले रास्तों पर आकर्षण है, चकाचौध है और सम्मोहित कर देने वाले सपने है। दूसरी तरफ शिक्षा का साधना मार्ग है, जो शान्ति दे सकता है, सन्तोष दे सकता है और हमारे आत्मतत्व को पचल करता हुआ विवेक दे सकता है। निश्चित हो वह मार्ग श्रेयस्कर है, मगर अपनी ओर आकर्षित करने वाले बाजार का मार्ग प्रेयस्कर है।इस दोराहे पर खड़ा शिक्षार्थी बाजार को चुन लेता है। लाखों-करोड़ों लोग आज इसी रास्ते के लालच में आ गए हैं। और शिक्षा के भँवरजाल में फँस गए हैं। बाजार की खूबी यही है कि वह फँसने का अहसास किसी को नहीं होने देता और मनुष्य लगातार फँसता चला जाता है। किसी को यह महसूस नहीं होता कि वह दलदल में है, बल्कि महसूस यह होता है कि बाजार द्वारा दिए गए पैकेज के कारण वह सुखी है। अब यह अलग बात है कि सच्चा सुख क्या है? और सुख का भ्रम क्या है ? जरूरत विचार करने की है। सवाल यह है कि बाजार विचार करने का भी अवकाश देता है या कि नहीं।
लेखक ने शिक्षा के संदर्भ मे किस बात को महत्त्व दिया है?

निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्न का उत्तर दीजिए।
शिक्षा आज दुविधा के अजब दोराहे पर खड़ी है। एक रास्ता चकाचौध का है, मृगतृष्णा का है। बाजार की मृगतृष्णा शिक्षार्थी को लोभ-लालच देकर अपनी तरफ दौड़ाते रहने को विवश करने को उतारू खड़ी है। बाजार के इन ललचाने वाले रास्तों पर आकर्षण है, चकाचौध है और सम्मोहित कर देने वाले सपने है। दूसरी तरफ शिक्षा का साधना मार्ग है, जो शान्ति दे सकता है, सन्तोष दे सकता है और हमारे आत्मतत्व को पचल करता हुआ विवेक दे सकता है। निश्चित हो वह मार्ग श्रेयस्कर है, मगर अपनी ओर आकर्षित करने वाले बाजार का मार्ग प्रेयस्कर है।इस दोराहे पर खड़ा शिक्षार्थी बाजार को चुन लेता है। लाखों-करोड़ों लोग आज इसी रास्ते के लालच में आ गए हैं। और शिक्षा के भँवरजाल में फँस गए हैं। बाजार की खूबी यही है कि वह फँसने का अहसास किसी को नहीं होने देता और मनुष्य लगातार फँसता चला जाता है। किसी को यह महसूस नहीं होता कि वह दलदल में है, बल्कि महसूस यह होता है कि बाजार द्वारा दिए गए पैकेज के कारण वह सुखी है। अब यह अलग बात है कि सच्चा सुख क्या है? और सुख का भ्रम क्या है ? जरूरत विचार करने की है। सवाल यह है कि बाजार विचार करने का भी अवकाश देता है या कि नहीं।
‘मृगतृष्णा’ का तात्पर्य है:








निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्न का उत्तर दीजिए।
मेरे मकान के आगे चौराहे पर ढाबे के आगे फुटपाथ पर खाना खाने वाले लोग बैठते हैं-रिक्शेवाले, मजदूर, फेरीवाले और कबाड़ी वाले...। आना-जाना लगा ही रहता है। लोग कहते हैं “आपको बुरा नहीं लगता? लोग सड़क पर गन्दी फैला रहे हैं। और आप इन्हें बरदाश्त कर रहे हैं? इनके कारण पूरे मोहल्ले की आबोहवा खराब हो रही है।"
मैं उनकी बातों को हल्के में ही लेता हूँ। मुझे पता है कि यहाँ जो लोग जुटते हैं, वे गरीब लोग होते हैं। अपने काम-धाम के बीच रोटी खाने चले आते हैं और खाकर चले जाते हैं। ये आमतौर पर बिहार से आए गरीब एवं ईमानदार लोग हैं, जो हमारे इस परिसर के स्थायी सदस्य हो गए हैं। ये उन अशिष्ट अमीरों से भिन्न हैं, जो साधारण सी बात पर भी हंगामा खड़ा कर देते हैं। लोगों के पास पैसा तो आ गया, पर घनी होने का शऊर नहीं आया। 'अधजल गगरी छलकत जाए' की तर्ज पर इनमें दिखावे की भावना उबाल खाती है।
असल में यह ढाबा हमें भी अपने माहौल से जोड़ता है। मैं लेखक हूँ तो क्या हुआ? गाँव के एक सामान्य घर से आया हुआ व्यक्ति हूँ। बचपन में गाँव-घरों की गरीबी देखी है और भोगी भी है। खेतों की मिट्टी में रमा हूँ, वह मुझमें रमी है। आज भी उस मिट्टी को झाडझूड़ कर भले ही शहरी बनने की कोशिश करता हूँ, बन नहीं पाता। वह मिट्टी बाहर से चाहे न दिखाई दे, अपनी महक और रसमयता से वह मेरे भीतर बसी हुई है, इसीलिए मुझे मिट्टी से जुड़े ये तमाम लोग भाते हैं। इस दुनिया में कहा-सुनी होती है, हाथापाई भी हो जाती है, लेकिन कोई किसी के प्रति गाँठ नहीं बाँधता। दूसरे-तीसरे ही दिन परस्पर हँसते बतियाते और एक-दूसरे के दुःख दर्द में शामिल होते दिखाई पड़ते हैं। ये सभी कभी न कभी एक दूसरे से लड़ चुके हैं, लेकिन कभी इसकी प्रतीति नहीं होती कि ये लड़ चुके है। कल के गुस्से को अगले दिन धूल की तरह झाड़कर फेंक देते हैं।
लेखक लोगों की शिकायतों को हल्के में लेता है, क्योंकि:

